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Saturday 18 July 2015

Thought of the day, 18th July 2015

Our life is like a potato chip, it will never get its crisp until we'll bake it in the heat of hardwork.

Tuesday 14 July 2015

घर से दूर जा रहा हूँ मैं

घर से दूर जा रहा हूँ मैं,
जब भी घर लौटने के दिन नज़दीक आते थे तो एक उत्सुकता हुआ करती थी अपनों को देखने की उनके साथ रहने की उनके प्यार की नदी में तैरने की,
सुबह उठकर माँ का चेहरा देखता था तो संसार के दुखों को भूल जाता था,
एक उत्साह के साथ दिन की शुरुआत करता था पर ना चाहते हुए भी
घर से दूर जा रहा हूँ मैं,
शाम के समय जब भी सबके पास बैठते और तभी पापा काम से लौट ते और बचपन की तरह आज भी मेरे लिए कुछ खाने को ले आते,
इस प्यार को किसी से कह नहीं सकता मैं लेकिन महसूस करता हूँ और इसे छोड़कर
घर से दूर जा रहा हूँ मैं,
जब भी अपने छोटे से शेहेर की उन तंग गलियों में घूमता हूँ कभी कचौड़ी खाने कभी कपडे खरीदने कभी आइस क्रीम खाता हूँ सड़क पे खड़े होकर तो लगता है की ये शेहेर मेरा है यहाँ लोग मेरे हैं ये सड़क मुझे पहचानती है यहाँ की बारिश भी मेरे चेहरे पर प्यार से गिरती है
इसी अपनेपन के लिए तरसता हूँ मैं और फिर भी
घर से दूर जा रहा हूँ मैं,
क्या ढूंढ रहा हूँ में बहार जाकर
क्या पाना चाहता हूँ मैं
किस अंधी दौड़ में हूँ मैं
क्या ये प्यार ही काफी नहीं है मेरे जीवन के लिए
क्यों मैं सबसे प्यारी चीज़ छोड़ के एक ऐसी जगह जा रहा हूँ जहा आयने में देख कर भी खुद को नहीं पहचानता मैं,
यहाँ खुश रहता हूँ लेकिन वहाँ खुश होना पड़ता है
कौन सी मज़बूरी है जो मुझे खुश देखना नहीं चाहती,
नहीं चाहता मैं जाना फिर भी
घर से दू जा रहा हूँ मैं,
मेरी माँ जो मेरे बिना एक दिन भी नहीं रहा करती थी आज क्यों मेरा सामान रखने में मदद करती है
क्यों अपने आंसू छुपा कर मेरे लिए  खाना रखती है
क्यों वो एक बार भी नहीं रोकती मुझे क्यों आज माँ के पास शब्द कम है क्यों वो आँखों में मेरी नहीं देख पा रही के मैं उसी के पास रहना चाहता हूँ
फिर भी भेज रही है मुझे बिना मन के और तब भी
घर से दूर जा रहा हूँ मैं,
रेलगाड़ी का जब इंतज़ार करता हूँ स्टेशन पर तब यही सोचता हूँ के काश एक बार पापा बोल दे के आज नहीं जा रहा तू
क्यों वो समय इंतज़ार का बढ़ता नहीं है और रेलगाड़ी आ जाती है,
उसका समय केवल दो मिनट का है रुकने का इसलिए सामान रख रहा हूँ मैं उस समय न मैं कुछ बोल रहा हूँ न पापा और मैं सामान रख कर खड़ा हूँ दरवाज़े पर रेलगाड़ी के और चुपचाप बिना कुछ बोले अपने पापा के चेहरे को अपनी आँखों में भरने की कोशिश करता ही हूँ की रेलगाड़ी चल देती है,
"ख्याल रखना अपना, खाना समय पे खा लेना, पहुँच के फोन करना, अच्छे से जाना" ये सब सुनते सुनते पापा की आवाज़ भी रेलगाड़ी की आवाज़ से दब जाती है और दूर जाते जाते धुंधली सी शकल हो जाती है,
काश पापा बोल देते के मत जा बेटा,
और मैं यही सोचते हुए अंदर आ जाता हूँ क़ि
घर से दूर जा रहा हूँ मैं।

- By heartthrob

Monday 1 June 2015

Thought of the day, 1st June 2015

"A building of turth can never be retained on the foundation of lies."
-heartthrob

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